*सवाल आपके जवाब गांधी भाई रोहरानंद के* मेरे बेटे भलाई का रास्ता छोड़ कुमार्ग में जायें और धन के लोभी हो जायें तो…….
प्रश्न – चन्दन शर्मा, दुर्ग संपादक जी, हर एक व्यक्ति किसी न किसी से प्रभावित होता है और अपनी जिंदगी को दिशा देता है क्या महात्मा गांधी जो आज दुनिया को प्रेरणा दे रहे हैं किसी से प्रभावित हुए थे। मोहनदास करमचंद गांधी भी एक सामान्य इंसान थे और उनकी भी कोई गुरु थे कोई राजनीतिक गुरु थे और कोई जीवन संघर्ष के गुरु थे जैसा कि हम जानते हैं गोपाल कृष्ण गोखले उनके राजनीतिक गुरु थे रामचंद्र उनके आध्यात्मिक गुरु थे और जॉन रस्किन से भी महात्मा गांधी को बहुत प्रेरणा मिली थी उन्होंने एक लेख में लिखा है कि “जॉन रस्किन एक उत्तम प्रकार का लेखक, अध्यापक और धर्मज्ञ था। उसका देहान्त १८८० के आसपास हुआ। उसकी एक पुस्तक का मुझ पर बहुत ही गहरा असर पड़ा और उसीके सुझाये हुए रास्ते के अनुसमैने एक क्षण में जिन्दगी में महत्त्व- पूर्ण परिवर्तन कर डाला। यह बात ज्यादातर आश्रमवासी तो जानते ही होंगे। उसने सन् १८७१ में सिर्फ मजदूर-वर्ग को ध्यान में रखकर एक मासिक-पत्र लिखना शुरू किया था। उन पत्रों की तारीफ मैने टॉल्स्टॉय की किसी रचना में पढ़ी थी। मगर वे पत्र मैं आज तक जुटा नहीं सका। उसकी प्रवृत्ति और रचनात्मक कार्य के विषय में एक पुस्तक मेरे हाथ आई थी, उसे यहाँ पढ़ा। उसमें भी उन पत्रों का उल्लेख था। इससे मैंने रस्किन की एक शिष्या को विलायत में लिखा। वही इस पुस्तक की लेखिका है। वह बेचारी गरीब है; इसलिए ये पुस्तकें कहाँ से भेज सकती थी ? मूर्खता से या झूठी विनय में आकर मैंने उसे आश्रम से रुपया मँगा लेने को नहीं लिखा। इस भली स्त्री ने अपनी अपेक्षा अधिक समर्थ मित्र को मेरा खत भेज दिया; वे ‘स्पेक्टेटर’ के मालिक हैं। उनसे मैं विलायत में मिला भी था। उन्होंने ये पत्र पुस्तकाकार चार भागों में छपाये हैं, सो भेज दिये। इनमें से पहला भाग मैं पढ़ रहा हूँ। इनमें विचार उत्तम है और हमारे बहुत-से विचारोंसे मिलते-जुलते हैं – यहाँ तक कि अनजान आदमी तो यही मान लेगा कि मैंने जो कुछ लिखा है और आश्रम में हम जो भी आचरण करते हैं, वह रस्किन की इन रचनाओं से चुराया हुआ है। ‘चुराया हुआ’ शब्द का अर्थ तो समझ में आ ही गया होगा। जिससे कोई विचार या आचार लिया हो, उसका नाम छिपाकर जब यह बताया जाये कि यह हमारी अपनी कृति है।तो वह चुराया हुआ माना जाता है। रस्किन ने बहुत लिखा है। उसमें से इस बार तो थोड़ा ही देना चाहता हूँ। वह कहता है कि इस कथन में गम्भीर भूल है कि बिलकुल अक्षरज्ञान न होने से कुछ होना अच्छा ही है। रस्किन की साफ राय यह है कि जो सच्ची है, आत्मा का ज्ञान करानेवाली है, वही शिक्षा है और वही लेनी चाहिए। और बादमें वह कहता है कि इस दुनिया में मनुष्य मात्र को तीन चीजों और तीन गुणोंकी आवश्यकता है। जो इन्हें हासिल करना नहीं जानता, वह जीनेका मन्त्र ही नहीं जानता । और इसलिए ये छः चीजें शिक्षा का आधार होनी चाहिए। इस तरह मनुष्यमात्र को बचपनसे – फिर भले वह लड़का हो या लड़की – जानना ही चाहिए कि साफ हवा, साफ पत्र: अमातुस्सलाम सेपानी और साफ मिट्टी किसे कहते हैं, इन्हें किस तरह रखा जाये और इनका उपयोग क्या है। इसी तरह तीन गुणों में उसने गुणज्ञता, आशा और प्रेमको गिना है। जिनमें सत्यादि की कद्र नहीं, जो अच्छी चीजको पहचान नहीं सकते, वे अपने घमण्ड में फिरते हैं और आत्मा नन्द नहीं पा सकते। इसी तरह जिनमें आशावाद नहीं यानी, जो ईश्वरके न्यायके बारे में शंका रखते हैं, उनका हृदय कभी प्रफुल्लित नहीं रह सकता । और जिनमें प्रेम नहीं यानी, अहिंसा नहीं, जो जीवमात्र को अपने कुटुम्बी नहीं मान सकते, वे जीनेका मन्त्र कभी नहीं साध सकते ।इस बातपर रस्किनने अपनी चमत्कारी भाषामें बहुत विस्तारसे लिखा है। यदि यह फिर किसी वक्त समाजके समझने लायक ढंगसे दे सकूं तो ठीक ही होगा। आज तो इतनेसे ही सन्तोष कर लेता हूँ। साथ ही इतना और कह दूँ कि जो कुछ हम अपने देहाती शब्दोंमें विचारते रहे हैं और आचरण में लाने का प्रयत्न कर रहे हैं, लगभग वही सब रस्किन ने अपनी प्रौढ़ और विकसित भाषा में और अंग्रेज जनता समझ सके, इस ढंग से पेश किया है। यहाँ मैंने दो अलग भाषाओं की तुलना नहीं की है, बल्कि दो भाषा-शास्त्रियों की की है। रस्किन के भाषा-शास्त्रके ज्ञानके साथ मेरे-जैसा आदमी मुकाबला नहीं कर सकता। मगर ऐसा समय जरूर आयेगा जब अपनी भाषा का हमारा प्रेम व्यापक होगा; जब भाषा के पीछे धूनी रमाने वाले रस्किन-जैसे शास्त्री निकल आयेंगे, तब वे उतनी ही प्रभावशाली गुजराती लिखेंगे जितनी प्रभावशाली अंग्रेजी रस्किन ने लिखी है. प्रश्न चिंतामणि भट्टाचार्य, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, *संपादक जी, सुकरात दुनिया का एक बड़ा नाम है उनके संदर्भ में कुछ ऐसा बताएं जिससे हमें मार्गदर्शन प्राप्त हो सके।* सुकरात के संदर्भ में महात्मा गांधी ने लिखा था वह कुछ इस प्रकार है -“साक्रेटिस एथेस का एक बुद्धिमान पुरुष हो गया है। उसके नये, पर नीतिपूर्ण विचार सत्ताधारियों को नहीं रुचे इसलिए उसे मौतकी सजा मिली। उस समय उस देश में विषपान करके मर जाने की सजा भी दी जाती थी। साक्रेटिस को मीराबाई की तरह जहरका प्याला पीना था। उसपर मुकदमा चलाया गया था। उस वक्त साक्रेटिस ने जो अन्तिम वचन कहे, उनके सार पर यहाँ विचार करना है। उसके वे शब्द हम सबके लिए शिक्षा लेने लायक हैं। साक्रेटिस को हम सुकृत कहेंगे। अरब उसे सुकरात कहते थे।सुकृत ने कहा: “मेरा दृढ़ विश्वास है कि भले आदमी का इस लोक या पर- लोक में अहित होता ही नहीं । भले आदमियों और उनके साथियों का ईश्वर कभी त्याग नहीं करता। फिर, मैं तो यह भी मानता हूँ कि मेरी या किसी की भी मौत अचानक नहीं आती। मृत्युदण्ड मेरे लिए सजा नहीं है। मेरे मरने और सांसारिक प्रपंच से मुक्त होने का समय आ गया है। इसीलिए आपने मुझे जहर का प्याला दिया है। इसी में मेरा कल्याण होगा, अतः मुझ पर अभियोग लगाने वालों या मुझे सजा देनेवालों के प्रति मेरे मन में क्रोध नहीं है। उन्होंने भले ही मेरा भला न चाहा हो, पर वे मेरा अहित नहीं कर सकते ।”पंचों से मेरी एक विनती है। मेरे बेटे अगर भलाई का रास्ता छोड़कर कुमार्ग में जायें और धन। के लोभी हो जायें तो जिस तरह आप मुझे सजा दे रहे हैं, उसी तरह उन्हें भी दें। वे दंभी हो जायें, जैसे न हों वैसे दिखने की कोशिश करें, तो भी उनको दण्ड दें। आप ऐसा करेंगे तो मैं और मेरे बेटे मानेंगे कि आपने शुद्ध न्याय किया।”अपनी सन्तान के विषय में सुकृत की यह माँग अद्भुत है। जो पंच न्याय करने को बैठे थे, वे अहिसा धर्म को तो जानते ही न थे। इसलिए सुकृत ने अपनी सन्तान के बारे में उपर्युक्त प्रार्थना की, अपनी सन्तान को चेतावनी दी और यह भी बताया कि उसने उनसे क्या आशा रखी थी। उसने पंचों को मीठी फटकार भी सुनाई, क्योंकि उन्होंने उसे उसकी सज्जनता के लिए सजा दी थी। सुक्कृत ने अपने बेटोंको अपने रास्तेपर चलने की सलाह देकर यह बताया कि जो रास्ता उसने एथेंस के नागरिकों को बताया, वह उसके लड़कों के लिए भी है; और वह यहाँतक कि, अगर वे उस रास्ते पर न चलें तो वे दण्ड के योग्य समझे जायें । gandhishwar.rohra@gmail.com