“हे बापू” दो शब्द…
हमारे देश में भी बापू को लेकर अच्छी खासी खेमे बंदी हैं। बहुतेरे लोग समर्थन में हैं तो एक तबका मुंह । बिचकाता है। सबसे बड़ा सच यह है कि बापू के व्यक्तित्व एवं कर्म को जाने बगैर लोग तलवारें भांज रहे हैं। मैं सभी से हाथ जोड़ प्रार्थना करता हूं कि पहले हम बापू को पढ़ें और उसके बाद अपनी राय तय करें।
‘हे बापू’ के सन्दर्भ में यही विनय है कि यह लघु-उपन्यास दरअसल मेरे अपने ही मनो भावों की प्रस्तुति है। यह कथानक नौनिहालों को बापू के नजदीक लायेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। उन्हें प्रेरणा मिलेगी, प्रेरित होंगे, इसी भाव के साथ।
सुरेशचन्द्र रोहरा, लेखक